भारतीय लोक कलाएँ - सांस्कृतिक विरासत का आईना

"हर रंग न जाने कितने भावों की गवाही देता है।"

भारतीय लोकपरंपरा अपने आप में बहुआयामी और विविधता से परिपूर्ण है।भारत दुनिया की कुछ सबसे पुरातन मानव सभ्यताओं में से एक माना जाता है। जब दुनिया के कई पश्चिमी देश वजूद तक मे नहीं थे, उनके होने न होने की संभावनाएँ तक नहीं रही होंगी तब भारतीय संस्कृति और सभ्यता न ही मात्र फलफूल रही थी बल्कि और बेहतर तथा प्रगतीशील समाज की ओर अग्रसर थी। अगर हम सिंधू घाटी सभ्यता की बात करें, तो वह ज़मीन अपने समय के अनुसार एक आधुनिक व सम्पन्न मानव सभ्यता के सबूत आज भी उगल रही हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास का कोई भी जानकार इस बात को नकार नहीं पाएगा कि ज़मीन के जिस भाग को आज हम भारत कहते हैं ये नक्शा बहुत नया है। इसके अंतर्गत कितने ही जन समुदाय आते हैं, जिसके बाद भी ये समुदाय न जाने कितनी जनजातियों और अन्य छोटे बड़े समुदायों में विभाजित हैं। इन सभी जनसमूहों की अपनी-अपनी परम्परायें और इतिहास हैं, जो इन्हें परिभाषित करते हैं।

देश भर में फैले राज्यों कि अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक पहचान और विशेषताएँ हैं, जो इन राज्यों में भिन्न-भिन्न कलाओं के रूप में अक्सर उभरती रहती हैं। साथ ही यह कलाएँ इन राज्यों की लोक परंपराओं का प्रचार-प्रसार भी करती रहती हैं और आने वाली पीढ़ियों का अपने इतिहास से एक रिश्ता सा कायम रहता है। भारत की पारंपरिक लोक कलाएं कहीं-कहीं इतनी सहज और साधारण होने के बावजूद भी इतनी असरदार और आज की तारीख में भी इतनी सजीव हैं कि स्वयं ही भारत देश की समृद्ध विरासत की गवाही देती हैं। अगर भारतीय लोक कलाओं की बात करें तो भारत के कितने ही गांव आज भी एक भिन्न और प्रभावशाली सभ्यता के रूप में जीवित हैं। जहाँ न केवल इन लोक कलाओं का प्रचार-प्रसार हो रहा है बल्कि यह काम इतने सहज तरीके से हो रहा है कि हमें एक नजर में इनकी इन कलाओं को जीवित रखने की जद्दोजहद दिखेगी ही नहीं। जैसे कि अगर हम मिट्टी के बर्तनों की बात करें तो यह हमें उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक भारत के हर कोने में किसी न किसी रूप में ये कला नजर आ ही जाती है। यहाँ तक की 'ऐ. एस. आई' द्वारा भारतीय इतिहास या कहें कि भारतीय प्राचीन इतिहास की जांच-पड़ताल करते समय न जाने कितने ऐसे अवशेष मिलते हैं, जैसे कि टूटे-फूटे पुराने बर्तन जिनकी सही तरीके से कार्बन डेटिंग से यह पता चलता है कि भारत में लोक कला का इतिहास कितना पुराना है। यह बर्तन आम दिनचर्या में इस्तेमाल होने वाले सामानों में शामिल है और सामान्य जन के बीच इन का आदान-प्रदान आम बात रहा होगा और क्योंकि मिट्टी से बर्तन बनाने की कला एक जाति विशेष का कारोबार हुआ करता था इसलिए यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रहती थी।

अगर हम चित्रकारी की कला की बात करें तो भारत के लगभग हर राज्य में यह अलग रूप में नजर आती है। चित्रकला की मौजूदगी समूचे भारत में नजर आती है लेकिन हर राज्य में इसका रूप परिवर्तित हो जाता है। जो उस राज्य विशेष भौगोलिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान को दर्शाता है। साथ ही यह कलाएँ भावी पीढ़ी के लिए इतिहास के एक हस्ताक्षर के रूप मैं भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराती हैं। यह चित्र कलाएं अपने आप में जटिल होते हुए भी इतनी सहजता से लोगों तक अपना संदेश पहुंचाती हैं कि इन्हें नज़रअंदाज कर पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। व्यक्ति इनकी सुंदरता को देखता ही रह जाता है और यही इन का उद्देश्य भी है। क्योंकी जब तक यह चित्र कलाएँ मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित नहीं करेंगी तब तक व्यक्ति उन्हें समझने की कोशिश ही नहीं करेगा और ना ही इनके भीतर बसे गहन संदेशों को समझ सकेगा। भारत में किसी भी प्राचीन मंदिर में चले जाइए वह केवल एक पूजा स्थली ही नहीं है बल्कि वह अपने आप में भारतीय इतिहास को समेटे हुए हैं। इन मंदिरों में भारतीय लोक कथाएँ और उनका महत्व अंकित है। साथ ही कुछ ही दूरी पर जाते ही यह एक दूसरे से भिन्न हो जाते हैं। यह भारत की विविधता ही है की हम एक राज्य से दूसरे राज्य में इन पुराने मंदिरों और इमारतों की एक जैसी संरचना नहीं मिलेगी और ना ही उन पर अंकित संदेश एक जैसे मालूम पड़ेंगे। आज तक यह भारतीय लोगों को ही नहीं बल्कि कितने ही विदेशी पर्यटकों को भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसी तरह से न जाने कितनी भारतीय लोक परंपराओं ने समय की मार को झेलते हुए भी स्वयं को न केवल जीवित रखा है, बल्कि निरंतर आगे भी बढ़ रही है। हर पल खुद को नए दौर में ढालने की कोशिश में भी लगी हुई है और अपने वास्तविक चरित्र को भी सुरक्षित रखने का भी हर संभव प्रयास करती रहती हैं।

अगर पहनावे की बात करें तो यह बहुत ही प्रत्यक्ष रूप से भारतीय संस्कृति की विविधता को दर्शाता है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक पहनावा बदलता ही जाता है। साथ ही अगर पूरब और पश्चिम की बात करें तो वहाँ के पहनावे देश के बाकी राज्यों से बिल्कुल ही भिन्न नजर आते हैं। यह केवल पहनावे मात्र नहीं है बल्कि इन राज्यों और इन में रहने वाले जन समूहों की लोक परंपराओं का आईना हैं, जो समय के साथ बदल तो रहे हैं पर उनकी परंपरागत आत्मा कहीं ना कहीं आज भी इनमें जीवित है। कपड़ों की बात करें तो यहाँ प्रत्येक राज्य में केवल उनके जनसमूह और इतिहास ही नहीं बल्कि वहाँ की भौगोलिक संरचना और मौसम के अनुसार भी अलग-अलग हैं, जैसे कि ठंडे, गर्म, सूखे और उमस भरे इलाकों में अलग-अलग तरह के कपड़े प्रचलित है। इसके अलावा कपड़ों पर की जाने वाली कारीगरी की बात करें तो वह भी अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूद जनसमूह के बदलने के साथ ही बदलती जाती है। कहीं रेशम की कारीगरी बहुत मशहूर है, तो कहीं बुनकरों के बुने कपड़े, कहीं खादी का बोलबाला है, तो कहीं लोग चिकनकारी के कायल हैं। इसके अलावा भी कपड़ों को लेकर ऐसी बहुत सी प्राचीन कलाएँ हैं जो अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। कहीं सर की पगड़ी मशहूर है तो कहीं साफे का महत्व है, कहीं लोग टोपी पहनना पसंद करते हैं तो कहीं उनका प्रचलन नहीं है। परंपरागत कपड़ों की बात करें तो वह भी एक राज्य से दूसरे राज्य में बदलते जाते हैं। कहीं धोती कुर्ते का महत्व है तो कहीं कुर्ते पजामे का, औरतों के परंपरागत कपड़े भी एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बदलते जाते हैं। कपड़ों की मूल आत्मा नहीं बदलती पर इनका रूप कहीं न कहीं परिवर्तित होता रहता है। जिस तरह से भारत का इतिहास प्रभावित हुआ है, वैसे-वैसे भारतीय लोक कलाओं ने भी अपना रूप बदला है। बाहरी आक्रमणकारियों के आक्रमण के बाद कहीं ना कहीं भारतीय लोक परंपराओं को दर्शाने वाली इन लोक कलाओं का पतन हुआ है। जब तक भारत इन बाहरी अराजक तत्वों के चंगुल से बाहर निकलता तब तक आधुनिक काल आ चुका था। हालांकि बाहर से आए जिन आक्रमणकारियों ने यहाँ रहने का निश्चय किया उन्होंने भारतीय लोक परंपराओं और लोक कलाओं को प्रभावित किया और आज हम इसके न जाने कितने सबूत देखते हैं। परंतु ब्रिटिश काल के दौरान भारतीय लोक कलाओं का बहुत भारी नुकसान हुआ जब ब्रिटेन ने भारत को अपने अधीन किया तब यहाँ की लोक कलाओं ने धीरे-धीरे दम तोड़ना शुरू किया। भारत से कच्चा माल बाहर ले जाकर, बना बनाया सामान भारत के बाजारों में बिकने को फेंक दिया गया, जिसके कारण भारतीय कारोबारियों के साथ -साथ भारतीय लोक कलाओं को भारी नुकसान झेलना पड़ा। साथ ही साथ एक समय ऐसा भी आया जब भारत में किसानों को फसल उगाने के भी अधिकार से वंचित किया गया उन्हें जानबूझकर कमाऊ फसल उगाने को मजबूर किया गया जिसकी वजह से भी कुछ भारतीय कलाओं को नुकसान हुआ इसके बावजूद भारतीय लोक कलाएं आज भी सांस ले रही हैं और स्वयं को जीवित रखने की जंग में लगी हुई हैं।

अब अगर हम भारतीय नृत्य कला की बात करें तो यह भारतीय कलाओं में विभिन्नता में एकता का एक बहुत बड़ा उदाहरण है। भारत के हर कोने में नृत्य कला का एक अलग ही रूप देखने को मिलता है। जैसे, उत्तर प्रदेश की नौटंकी नृत्य जो की छंद, दोहा, हरिगीतिका आदि द्वारा दर्शाया जाता है। साथ ही इसमें कई अन्य तरह के नाच भी शामिल होते हैं। इसमें साहित्य के कई रसों का दर्शन हो सकता है। मध्यप्रदेश का पंडवानी जिसमें  गायन और नृत्य  एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाता है, साथ ही इसमें  मूलतः पांडवों की कहानियां दर्शाई जाते हैं। इसी राज्य के निमाड़ क्षेत्र में गणगौर नृत्य प्रचलित है, जो नवरात्रि के अवसर पर किया जाता है। इसमें मूलतः माँ गौरी और शिव जी की पूजा की जाती है। महाराष्ट्र का तमाशा और लावणी, इन दोनों लोक नृत्यों में  ज्यादातर महिलाएँ ही मुख्य भूमिका में होती हैं। कर्नाटका का यक्ष गान, जो कि मूलत: धान के खेतों में रात के समय में किया जाता है और इसमें ज्यादातर युद्ध कलाओं का प्रदर्शन होता है। गुजरात का गरबा जो ज्यादातर  नवरात्रि के अवसर पर किया जाता है और इसमें  माँ दुर्गा की उपासना की जाती है। पंजाब का भांगड़ा जिसमें पुरुष पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य और गान करते हैं और गिद्दा जिसमें  महिलाएँ पारंपरिक  पंजाबी वेशभूषा में नृत्य  करती हैं। असम का बिहू जो वहाँ की एक ख़ास जनजाति द्वारा फसल की कटाई के दौरान  बहुत ही साधारण वेशभूषा में किया जाता है। राजस्थान का घूमर महिलाओं द्वारा  राजस्थान की  पारंपरिक  वेशभूषा में की जाने वाली बहुत ही आकर्षक  नृत्य कला है। उत्तराखंड का कजरी और छौलिया, जो कि इस क्षेत्र में  विवाह के समय पर पुरुषों द्वारा किया जाने वाला पारंपरिक नृत्य है। आंध्र प्रदेश का कुचिपुड़ी जो पारंपरिक  कपड़ों में  मृदंग और  अन्य  यंत्रों के साथ किया जाता है। ओडिशा का ओडीसी जिसमें  भगवान कृष्ण और  विष्णु  के अवतार की कथाएँ दर्शाई जाती हैं। साथ ही  भगवान जगन्नाथ की भी कहानियां देखने को मिलती हैं, साथ ही इसी क्षेत्र में धुमरा भी प्रचलित है। गोवा का मंदी और ढकनी। बिहार का जाट-जतनी और छऊ नृत्य जो कि गीत संगीत के साथ किया जाता है। इसमें रामायण और महाभारत के कहानियों को दर्शाया जाता है जिसमें मुखौटा इस नृत्य का एक खास आकर्षण माना जाता है। जम्मू -कश्मीर का कूद डंडी नाच और रउफ़। नागालैंड का लीम और छोंग। पश्चिम बंगाल का जात्रा और छाऊ।
यह सभी लोक नृत्य भारतीय लोक कला की विविधता और ऐतिहासिक तथा पारंपरिक विशालता के प्रतीक हैं। साथ ही इनमें से लगभग हर एक कला अपने राज्य क्षेत्र से जुड़ी हुई है और उसके गुणों को दर्शाती है यह सभी कलाएं बहुआयामी हैं क्योंकि यह न केवल एक खास क्षेत्र की आध्यात्मिक सोच को दर्शाते हैं बल्कि उस क्षेत्र के पहनावे बोल-चाल की भाषा और अन्य विशेषताओं को भी हमारे सामने रखते हैं। अब क्योंकि यह पारंपरिक लोक कलाएँ जनमानस के बीच जनमानस के द्वारा ही प्रदर्शित की जाती हैं, इसीलिए पीढ़ी दर पीढ़ी हम तक पहुँचती हैं। यह भारतीय लोक परंपरा की खासियत ही है की इतनी विविधता के बावजूद यह सभी कलाएँ एक तार में पिरोई हुई हैं। साथ ही समय के साथ उन्होंने अपना रूप भी बदला है और समय की गति का साथ दिया है। ताकि लोगों के बदलते विचारों के साथ चल सकें। इसके अलावा जैसे कि हम जानते हैं कि भारत में कई संस्कृतियों का मिलाजुला रूप देखने को मिलता है, तो यह कलाएँ उनके गुण भी अपने आप में समेट लेती हैं जिससे हमें इनका एक नया ही रूप देखने को मिलता है।

इसके अलावा यदि हम एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पहुँचते हैं, तो हमें बोलियाँ भी बदलती हुई नज़र आती हैं। उत्तर प्रदेश मैं अवधि, कन्नौजी, ब्रजभाषा, बुंदेली आदि, मध्यप्रदेश में बघेली, छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, राजस्थान में मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी और मालवी बोली जाती है। बिहार में भोजपुरी और मगही। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में पहाड़ी, कुमाऊनी और गढ़वाली बोली जाती है। इन गिने चुने क्षेत्रों और उनकी बोलियों के अतिरिक्त भी भारत में न जाने कितने क्षेत्र और उनकी अपनी बोलियाँ हैं। साथ बाहर से आये आक्रमणकारी जो यहाँ बस गए, वशेष कर मुग़ल, पारसी, क्रिश्चियन, आदि वो भी अब भारतीय सभ्यता का एक अभिन्न अंग बन चुके हैं। इसके अलावा भारतीय साहित्य पर भी हम समय का प्रभाव देखते हैं। कितने ही महान लेखकों को पढ़ कर भारतीय इतिहास और परंपराएँ जीवंत हो जाती हैं। फिर चाहे वो दिनकर की रश्मिरथी हो या निराला विद्रोह, महादेवी वर्मा की पीड़ा और आत्मसम्मान का छायावाद हो या फिर अन्य भारतीय लेखकों, जैसे - सुमित्रानंदन पंत, गो स्वामी तुलसीदास, महर्षि वाल्मीकि, आदि। हर दौर के लेखकों की रचनाओं में भारतीय संस्कृति और इतिहास की परछाईं झलकती है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत की विविधता उसकी पारंपरिक धरोहर है। जो इन पारंपरिक लोक कलाओं के जरिए आगे बढ़ती है। यह लोग कलाएँ भारत के दूर-दराज में स्थित क्षेत्रों को भी भारतीय मुख्यधारा से जोड़ने में एक अहम भूमिका निभाती हैं, क्योंकि यह सभी कलाएँ अपने आप में एक क्षेत्र को दर्शाती हैं। परंतु इन का मिलाजुला रूप हमें भारतीय लोक परंपरा का एक अहम और बहुत ही सुंदर दृश्य भी दिखाता है। आज के समय में इन लोक कलाओं को संरक्षित करना और इनकी प्रगति की ओर काम करना एक अहम जरूरत है क्योंकि इनमें से ज्यादातर कलाएँ आज के दौर में अपने क्षेत्र तक ही सीमित है और ऐसे में यह विलुप्ती की ओर बढ़ जाएंगी। अगर इनका सही प्रचार-प्रसार किया जाए और इनकी खासियत और भारतीय सभ्यता में इनकी अहमियत एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक भी पहुँचाई जाए तो लोगों को इनके बारे में जानने में और इन्हें देखने में रुचि होगी। साथ ही भारतीय इतिहास और लोक परंपराएँ लोगों के बीच जीवित रहेंगी। इसमें अहम भूमिका आधुनिक काल का मीडिया निभा सकता है जो कि समकालीन समय के अनुसार इन प्राचीन कलाओं को लोगों तक पहुँचा सकता है, ताकि लोग इन कलाओं को इनके मूल रूप में तो देख ही सकें पर साथ ही एक आधुनिक परिवेश होने के कारण वह इनमें रुचि भी ले। इसका एक लाभ यह भी होगा के यह जितनी भी क्षेत्री कलाएँ, बोलियाँ, नृत्य, चित्रकारी, शिल्प कला आदि कलाएँ हैं, यह सब जीवित रहेंगी और आने वाली पीढ़ियाँ भी इनके बारे में जान सकेंगी।

                -प्रिंसी मिश्रा

(Partial Pic credit To Online Sources)




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