कलम
लफ़्ज़ों की बड़ी तीखी ज़ुबान होती है,
जब कलम सच की सियाही से भीगी होती है।
उसूलों की किताब अक्सर,खून के आँसू रोती है।
सच के पहरेदार को सुकून की नींद कहाँ नसीब होती है?
भटक गए हैं कितने इस रास्ते की भूलभुलैया में,
कितने खा रहे हैं गोते असमंजस के ज्वारभाटे में,
कितनों को मालूम ही नहीं लेखनी हथियारों का नहीं,
बल्कि विचारों का एक ऐसा द्वंद है,
जहाँ शब्द कुछ ऐसे टकराते हैं,
कि विनाश नहीं ,नव निर्माण होता है।
और जो स्वयं से युद्ध नहीं करता,
वो इस युद्धभूमि के योग्य योद्धा नहीं होता है।
याद रहे कलम की चाल स्वतंत्र सोच के साथ चले,
भीड़ में इसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
आदत है इस कलम की ,लाल रंग की सियाही पा,
ये लिखने को मजबूर हो जाती है,
और चीख-चीख कर इंसाफ की गुहार लगती है।
अत्याचार होता देख इसके कदम थिरकने लगते हैं,
और एक विभत्स तांडव करने लगते हैं।
हर ओर त्राहि-त्राहि मच जाती है,
जब कलम विचारों की भूमि पर युद्ध-राग गाती है।
कलम दहकते अंगारों को कागज़ पर रख देती है,
जिसकी जलन कागज़ न सही ,
पर कई लोगों के दिलों और सोच को जला जाती है।
याद रहे कलम एक आईना है जो वही दिखता है,
जो उसके सामने खड़ा हो,
पर इसे ज़रूरत होती है सच और संयम की रोशनी की,
तभी देखने वाला इसमें न्याय का अक्स देख पाता है।
कलम को मन के शीतल भावों का समंदर खूब भाता है,
और पढ़ने वाला इसमे खो जाता है।
पर मजबूरी है इसकी ,
सच का लंगर इसको खारे भावों के पानी में ही रखता है,
मीठा पानी तो कभी -कभी ही इसकी प्यास बुझाता है।
अक्सर ये खारा पानी एक लेखक की कलम से छलक जाता है ,
और कागज़ को भिगो देता है।
-प्रिंसी मिश्रा
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