भीख की रोटी





हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ,
मैं चूल्हों की आग से शहर जलाता हूँ,
फिर अपनों के आगे रहम का दामन फैलता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं नन्हें हाथों से सपनों की राख उठता हूँ,
आज की चिता पर कल की लाश जलाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं पढ़-लिख कर भी भीख माँगने जाता हूँ,
गुर्राते हक़ की खींझ आँकने जाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं अब भी सड़कों पर सोता पाया जाता हूँ,
सड़कों पर पड़ा भाग्य मैं अपना पाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं अपने ही घर में लुटी आबरू की लाज बचाने जाता हूँ,
घर और बाज़ारों में अक्सर खुद ही बे पर्दा हो जाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं कभी कहीं भीड़ के हाथों मारा जाता हूँ,
तो कभी उसी भीड़ में खड़ा नज़र आता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं नन्हीं बच्चियों की चीख़ में चिल्लाता हूँ,
वहशी जानवर बन नोच उन्हें खाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं सत्ता के दामन पर बन दाग नज़र आता हूँ,
मिट्टी का पुतला, हर बार बिखर जाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं ही बन सैनिक सरहद पर लड़ने जाता हूँ,
फिर ख़ुद ही कफ़न-दफन का सारा सामान जुटाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं मंदिर में प्रसाद, गुरुद्वारों में लंगर की रोटी खाता हूँ,
तो कभी यूँ ही किसी मस्ज़िद में नमाज़ भी पढ़ आता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं शिव का त्रिनेत्र, खुद को काली के श्रृंगार में पाता हूँ,
अक्सर नास्तिक बन खुद ही खुद का किरदार बनाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं भारत, मिट्टी की मूरत में भी पूजा जाता हूँ,
धरती-गगन,सूरज-तारों, और चाँद में ईश्वर को पाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं हाथ में ले मशाल उस ईश्वर की रक्षा करने जाता हूँ,
फिर लौट उसी दर ख़ुद ही ख़ुद से शर्मिंदा होकर आता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं बंजर खेतों में भी मेहनत की फसल उगाता हूँ,
उपेक्षा और मौसम की मार से फिर बे मौत ही मारा जाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं टूटे-फूटे कमरों में लकड़ी की स्लेट लिए पढ़ने जाता हूँ,
फिर भी कभी-कभी मैं चाँद परे हो आता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं पत्थर को चीर पानी के कुएँ बनाता हूँ,
अक्सर मैं प्यास के हाथों मारा जाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं बड़े-बड़े सितारों में पहचान बड़ी ही पाता हूँ,
अक्सर अपने गली-गलीचों में गुमनाम नज़र आता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं भारत, सब कहते हैं मैं इतिहास पुराना माना जाता हूँ,
क्यों अब भी  हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जाट, मराठा पाता  हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं भारत, राम-रहीम-नानक और इंक़लाबी घराने से आता हूँ,
ख़ुद ही ख़ुद को ख़ुद की कुर्बानी का नज़राना पाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं सदियों की बेड़ी, शोषण की चीख सुनाता हूँ,
सत्तावन, सैंतालिस, बासठ, पैंसठ, इकहत्तर का संघर्ष बताता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं स्वयं रणक्षेत्र, पर अमन-पताका फहराता हूँ,
रण-भेरी का नाद प्रबल, दुश्मन को भी गले लगता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं शब्द-वंश की अमिट बेल नित बढ़ता ही जाता हूँ,
दिनकर की रश्मिरथी, जग को जीवन का सारा सार बताता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं महादेवी की पीड़ा, खुद को नराला के विद्रोह में पाता हूँ,
प्रेमचंद के भीतर बसे समाज का दर्पण दिखलाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं तुलसी की चौपाई,खुद को मीरा के गीतों में पाता हूँ,
दुनिया में बुध के परिचय से भी जाना जाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं कबीर की वाणी और ग़ालिब के शब्दों से जाना जाता हूँ,
कभी अंगार, कभी बहता जल तो कभी मौन रुदन बन जाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं भारत मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च से पहले पूजा जाता हूँ,
फिर इनके नाम पे बट-कर भी एक स्वयं को पाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
मैं खुद को चलती-फिरती लाशों के कफन कहीं पता हूँ,
फिर झकझोर खुद ही खुद की मौत सरीखी नींद भगाता हूँ,
हाँ मैं भीख की रोटी खाता हूँ।
आखिर कब तक, आखिर क्यों,
मैं अब भी भीख की रोटी खाता हूँ?
मैं रोज़ खुद ही खुद से भीख माँगने जाता हूँ,
मेहनत की रोटी भीख में पाता हूँ,
मैं अब भी भीख की रोटी खाता हूँ!
        -प्रिंसी मिश्रा


Comments

  1. bahut sundar poem

    http://gyankadeep.blogspot.com/p/blog-page_8.html

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