मज़दूर - निर्माण के बोझ तले दम तोड़ता वर्ग



विपरीत चलती सारी हवाएँ,
विचलित खड़ी सारी दिशाएँ,
दृश्य अनोखा देखती हैं,
काल के कपाल पर,
 कोई खड्ग कैसे चलाये!
निज कर में सृजन के शर धर,
अर्ध नग्न बदन पर,
 ओस की कुछ चंचल बूंदें लिए,
मार्ग में दृढ़ खड़े,ठूँठ से पत्थरों पर,
विपत्तियों के गढ़ों पर,
बार-बार चोट करता ही जाए।
साँवला तन,साँवली काया,कार्यरत मन ,
सूर्य के झुलसाते दम्भ को लज्जित कर जाए।
तिनका भर है बस जो इस धरा पर,
सृजन को कर्म सिखाये,
महलों में,किलों में,
इतिहास के अमर-तनों में,
इनके ही तो अक्स नित मुस्कराएँ।
इन्होंने ही तो प्यासों के ख़ातिर,
धरती को चीर कुएँ बनायें,
निज तृष्णा पर मिटा न पाए।
टूटे खंडहरों की मायूस और बोझिल दरारों में,
इनके ही तो चेहरे हैं झांकते आये,
यही हैं जो निर्माण में अमर होते आये।
फिर भी ये वही हैं,
जिनके हिस्से घर न आये,
बीत गया जिनका जीवन तिरपाल लगाए,
वो जिनका जीवन ईंटों को गढ़ते बीता,
जिनका अस्तित्व रहा स्थिरता से रीता,
वो जिन्होंने जीवन भर ग़ैरों के महल बनाये,
वो जिनके हिस्से तुसली से आँगन न आये।
वो जिनकी रसोईं में माँओ ने गाने न गाये,
वो जिनके बच्चों ने कमरों पर निश्छल हक न जताए।
जो निरंतर चलते गए,
तरक्की के झूठे आयाम जिनको छलते गए,
जो समाज के खोखले ढाँचे में ढलते गए,
वो जो पसीना बन हमारे घरों की मिट्टी में मिलते गए।
चलो एक फ़र्ज़ निभा लेते हैं,
इनके सपनों के घरों की भी, नींव उठा लेते हैं,
महल न सही एक छोटा सा मकान इनके लिए भी बना लेते हैं।
पर फिर इतनी फुरसत कहाँ हैं लोगों को?
इतनी गैरत कहाँ हैं लोगों में?
ज़रूरी हैरत कहाँ है लोगों में?
कोई तो इनका भी किस्सा सुनाये।
       -प्रिंसी मिश्रा

















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