26/11 का दंश





यहीं कहीं गिरा था रुधिर,परम् त्याग की चेतना से बहकर,
यहीं कहीं रोया था तिरंगा,वीरगति का हृदय घात सहकर,
यहीं कहीं गिरा था सैनिक,भारत माता की जय कहकर।
अब यह मिट्टी चंदन है,फिर कैसा ये क्रंदन है?
अरे मूर्ख ,तुझे कुछ देर हुई थी आने में,
समय अभी है जीत का जश्न मनाने में,
दोषी को सज़ा दिलाने में।
ये वही चौखट है जहाँ से निकला था,वापस आने की बात वो कहकर,
यहीं कहीं गिरे थे इंतेज़ार के किले,मृत्यु शोक में ढहकर।
यहीं कहीं वो अब भी हैं,गए स्वयं को जो सबकी यादों में गहकर,
आघात यही है इंसाफ मिला नहीं,इतनी दलीलें भी देकर।
खैर, देखें कितना और अभी रण बाकी है,
मालूम हमे है,निज प्राण,अभी प्रण बाकी है।
सीमा का मान संभारो,
कि काली का खप्पर खाली है,शिव का त्रिशूल अब भी बैरागी है।
प्रतिशोध की ज्वाला जलने न दी,
पर निज मान के दीपक में लौ अब भी बाकी है।
खाकी को कफन बनाकर ओढ़ लिया था कुछ वीरों ने,
माँग समय की जब थी,धैर्य न खोया उन धीरों ने,
नहीं कोई था बाध्य समर को,पर रण को लिया साध्य उन वीरों ने।
घुसपैठिये घर में घुस आए थे,राह नई गढ़ आये थे,
पर प्रहरी सजग खड़े थे,गीता को पढ़ आये थे।
वीरता देखो दुश्मन की,लड़ने को बालक भिजवाए थे,
और यहाँ नन्हे बालक, पिता के सर पर त्याग की पगड़ी धर आये थे।
तूफान थमा तो ,हिसाब बहुत हुआ था,
उस दिन घर में ,विलाप बहुत हुआ था।
एक-एक अश्रु शहादत के पग पखार रहा था,
वर्दी का आधार खड़ा,वर्दी की राह निहार रहा था,
गौरव ,पीड़ा के कंधों को भारी मन से सम्भार रहा था।
धुआँ छटा तो ,रख बहुत थी गंगा में बहाने को,
राख हटी तो,अंगार बहुत थे दोषी को जलाने को।
शमशान परे क्या है,तू क्या जाने,मैं क्या जानूँ,
इतना मालूम मगर है,लौट वहाँ से भी आता है सैनिक,
समर की पावनता का पाठ,हमें पढ़ाने को।
कितने भेजोगें दानव तुम इस धरती को जलाने को,
स्वागत है,
काल खड़ा हर सीमा पर है,उन्हें निगल जाने को।
समर का असल सार तुमको बतलाने को।
समर का असल सार तुमको बतलाने को।
       
           -प्रिंसी मिश्रा

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