लफ्ज़








वो कि जो तुझे ,
दामन थाम इश्क़ की शामों में ले जाये,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो की जो तुझे दुनिया की रंगत दिखलायें,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो कि जो मेहबूब की बाहों का हार पहनायें,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो कि जो महज़ आंखों को तर कर जाए,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो कि जो टूटे दिल कि दास्तान सुनाये,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो कि जो मोहब्बत के सुर्ख लबों की सुगबुगाहट सुनाये,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो कि जो मयखानों से टपकती बूँदों का मोहताज हो,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो कि जो मेहबूब का नाम साँसों में गढ़ जाए ,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
वो कि जो रुख से बह कर इल्जाम लगा जाए,
ये वो अल्फ़ाज़ नहीं।
फिलहाल तो नहीं।

फिर इनकी पहचान क्या है?
फिर ये इश्क की इबादत हैं,
राधा-कृष्ण की पूजा हैं,
रिश्तों की वो गिरहें है,
जो कुटुम्भ की नींव हैं।

ये रूह के टुकड़े हैं,
जज़्बातों की जंग हैं,
ये उपेक्षित वर्ग का आईना हैं,
बेड़ियों की चीख हैं,
ये भूख की गुर्राहट हैं,
बयाँ करने की तलब हैं,
ये घायल आबरू के जख्म हैं,
उस आईने की कहानी हैं,
जिसमें समाज की नग्न तस्वीरें हैं।
सतह नहीं ये गहरा पानी हैं,
ये मिट्टी की ख़ुशबू हैं,
रगों में बहता यकीन हैं,
ये इतिहास की दलीलें हैं,
वर्तमान का सत्य हैं,
ये भविष्य की गुहार हैं,
ये हर रूह की पुकार हैं।

ये मेरी लिखी,
तेरी पढ़ी,
सारे जहान की, एक ही मुकम्मल कहानी हैं।
           -प्रिंसी मिश्रा

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