भगत सिंह-एक जवलंत विचार



भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु को तय समय से करीब बारह घण्टे पहले फांसी दे दी गई।ये महज़ तीन क्रांतिकारियों की हत्या नहीं थी।ये एक विचार की हत्या का प्रयास था। भगत सिंह को मार पाना अब अंग्रेज़ी हुकूमत के बूते के बाहर की बात हो चुकी थी।शायद इसीलिए ब्रिटिश राज ने मायूस हो एक नितांत निंदनीय और ओछा फैसला लिया।
पूरे ब्रिटिश शासन ने एक 23 वर्ष के नौजवान के सामने घुटने टेक दिए।अंग्रेजी हुकूमत ने भगतसिंह ,राजगुरु और सुखदेव को फाँसी पर चढ़ाने से पहले ही खुदखुशी कर ली ,और ये तीन निडर जवान मर कर भी अमर हो गए।
लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च, 1931 का दिन पहली नज़र में तो किसी आम दिन की ही तरह था, पर किसे मालूम था कि चढ़ता सूरज अपने साथ दबें पाँव एक तूफान लेकर आ रहा था जो ढलते सूरज के साथ लौटेगा नहीं ,बल्कि आने वाली रात को लोगों के ज़हन में ऐसे कायम कर जाएगा कि लोग दशकों इसे भूल नहीं पाएँगे।शाम के चार बजने वाले थे,ढलता सूरज चारों ओर अपनी लालिमा बिखेर रहा था,पक्षी चह-चहा रहे थे, सब कुछ सामान्य ही लग रहा था। पर बाहर से सब कुछ जितना शांत दिख रहा था ,लाहौर सेंट्रल जेल अपनी चारदीवारी में उतने ही बड़े तूफान को समेटे हुए था। वार्डन चरण सिंह के कहने पर सभी कैदी अपने-अपने सेल में लौट गए ।कैदियों को यह कुछ अटपटा लगा और कानाफूसी चालू हो गई पर किसी को कुछ समझ नहीं आया।
भगत सिंह कोई दृष्टिहीन क्रांतिकारी नहीं थे।उनका जन्म पंजाब के ल्यालपुरी ज़िले के जरनवाला तहसील में बांगा गाँव में 27 सितंबर 1907 में हुआ था।उनके जन्म के वख्त उनके पिता और चाचा दोनों ही जेल में थे।भगत सिंह डी. ए. वी स्कूल और लाहौर के नेशनल कॉलेज के पढ़े लिखे थे।उस समय में इसे क्रांतिकारियों के गढ़ माना जाता था।'लाहौर कांस्पीरेसी 'केस का फैसला सबको पहले ही मालूम था। कोई कैसे भूल सकता था उस दिन को जब कोर्ट ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को मौत की सजा सुनाई थी। इसके बावजूद इन तीन क्रांतिकारियों को फांसी मिलने पर देश में शोक लहर दौड़ गई थी।लोगों का दुख आक्रोश बंद अंग्रेजी हुकूमत पर फूट पड़ा था।यह बताना भी बहुत जरूरी है कि भगतसिंह किसी सर्वोपरि ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे। इसका यह मतलब कतई नहीं कि वह स्वयं को बाकी सब से ऊपर मानते थे। उन्होंने काफी गहन चिंतन के बाद ही ईश्वर के वजूद को नकारा था।उनका मानना था कि गर्व और घमंड में अंतर होता है , घमंड उन्हें ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने से रोक सकता था पर उनका गर्व नहीं ।घमंड व्यक्ति के सामने दो ही मार्ग छोड़ेगा , या तो वह स्वयं को ईश्वरीय शक्तियों से युक्त मानेगा या फिर स्वयं को ही ईश्वर घोषित कर देगा। गौरतलब है कि भगत सिंह शुरू से नास्तिक नहीं थे।बढ़ती उम्र और अनुभवों के साथ उनकी सोच बदलती गई।
नेशनल कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद उनकी सोच में एक अहम बदलाव आया।यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस सोच के असमंजस के बावजूद वे सिख धर्म के मुताबिक ही लंबे के केश और दाढ़ी रखते थे। कह सकते हैं कि भगतसिंह ईश्वर में अंधा और अटूट विश्वास नहीं रखते थे ।इसके बावजूद वह पूरी तरह से नास्तिक भी नहीं थे।भगत सिंह के पास ज्ञान और तर्क का भंडार था। यह भी एक अद्भुत बात ही है की फांसी के दिन भगत सिंह 'लेनिन'की लिखी एक किताब ही पढ़ रहे थे।यह किताब वह खत्म नहीं कर सके।और फिर कभी पढ़ने का वादा कर सूली पर चढ़ गए।एक महान विचारक की दूसरे महान विचारक से मुकम्मल मुलाकात नहीं हो पाई।भगत सिंह देश ही नहीं विदेश के माहौल की भी जानकारी रखते थे।माना जाता है कि  भगत सिंह मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे।वे सदैव ही दमन और शोषण की राजनीति की निंदा करते थे और उनका मानना था की अंग्रेजों के बाद भी जो सत्ता में आएँगे वो इस धरती को चोट ही पहुँचाएँगे और ऐसे में हमें इमानदारी से इस लड़ाई को कायम रखना होगा।भगत सिंह ने मार्क्स ,लेनिन और त्रोत्सकी जैसे विचारकों को गहराई से पढ़ा था। 1926 के अंत तक किसी भी तरीके के सर्वोपरि ईश्वर से भगत सिंह का विश्वास पूरी तरीके से उठ चुका था। और उन्होंने खुले तौर पर इस बात को स्वीकारना शुरू कर दिया था।भगत सिंह एक सच्चे नास्तिक थे। जब फांसी से पहले एक शुभचिंतक में उन्हें गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ने को कहा तो उन्होंने इसके जवाब में कहा की सारी जिंदगी मैंने ईश्वर को नहीं माना और अब आखरी समय में अगर उसे याद करूंगा तो डरपोक कहलाऊँगा।
व्यक्ति के विचार और कर्म उसे अमर बना देते हैं। ऐसी ही एक शख्सियत थे भगत सिंह।जिन्होंने बचपन से ही वतन की आजादी के लिए होते संघर्ष को देखा था। और उससे प्रेरित भी थे।भारत का यह सपूत वाकई 'भागों वाला' था जो उदित हुआ तो भारत का भाग्य लेकर और अस्त हुआ तो समूचे भारत को उदित कर गया।
 भगत सिंह क्रांतिकारी के साथ-साथ एक चिंतक और विचारक भी थे। वे हर बात को तथ्यों के धरातल पर चलते थे। उन्हें यकीन था कि अंग्रेजों के बाद जो भी सत्ता पर बैठेगा वह भी गरीबों का शोषण और दमन ही करेगा। इसीलिए उनकी इच्छा यही थी कि भारत का हर नागरिक इस शोषण और दमन के खिलाफ खड़ा हो। भगत सिंह एक ऐसा विचार है,जिसको परिभाषित कर पाना किसी के भी बूते के बाहर की बात है।किसी भी आस्था या विश्वास से ऊपर वे कर्म को मानते थे।और उनका पूरा जीवन इसी विचार का दर्शन है।सच ही है कि समय अपना योद्धा स्वयं ही चुनता है।समय ने ऐसे घोर अंधकार में भगत सिंह जैसे योद्धा को ज्योतिपुंज के रूप में चुना था।जो स्वयं तो बहुत ही कम आयु में बुझा गया लेकिन समस्त भारत को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ और आजादी के लिए एक मशाल में बदल गया।भगत सिंह जैसे लोगों का कर्ज भारत कभी चुका न सकेगा।लेकिन उनके बलिदान को हम चिरकाल तक याद रखेंगे।भगत सिंह जैसे गहरी सोच और दूरदर्शिता रखने वाले युवाओं की आज भारत को बहुत आवश्यकता है।जो तर्क और मूल्यों के सिद्धांत पर अपनी लड़ाई लड़ते हैं।
                   -प्रिंसी मिश्रा

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