मरता किसान

मुनिया की चीख सुनकर सारा गाँव इकट्टा हो गया,प्रशासन अपनी लंगोट संभाल कर भागा, चौकी पर ऊंघते दरोगा जी तो गिरते- गिरते बचे पर अपनी टोपी संभाल कर भागे,मुखिया जी की उम्र उन्हें भागने नही दे रही थी पर जैसे तैसे वो भी अपनी लठ लेकर निकले,आस-पास से गुजर रहे राहगीर भी पहुँचें, और दूर किसी घर मे मरणासन अवस्था मे पड़ी मानवीय संवेदना भी रेंगते ही सही पर पहुँची।गाँव की चौपाल पर भीड़ इकट्ठा हो गई ,कि आखिर हुआ क्या?कहीं मुनिया को किसी सांप ने तो नही काटा, या कोई जंगली जानवर तो गांव में नहीं घुस गया,पर ज्यों ही सबकी नजर मुनिया की नज़र की सीध में पड़ी,सबने चैन की सांस ली।
गांव में लगे सबसे बड़े और पुराने पेड़ से लटक रही थी हरिहर काका की लाश।मुनिया की माँ उसे लेकर घर लौट गई,राहगीर अपने -अपने रास्ते चल दिये,सारा गाँव धीरे -धीरे अपने ढर्रे पे लौट गया।दरोगा जी ने काका के बेजान शरीर को नीचे उतारा।कर्ज़, मौसम,उपेक्षा , कम उपज,अधिक लागत,आदि से लड़ाई में एक और किसान ने आत्मसमर्पण कर दिया।अब यह एक आम बात हो गई है,और एक किसान के आत्महत्या करने पर किसी  को खासा आश्चर्य नहीं होता।
देश में किसानों की स्थिति अत्यंत दयनीय है,वो किसान जो भारत की प्रगति में एक अहम योगदान देता है आज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रहा है।
हाल ही में हुए कई किसान आंदोलन इस बात का सबूत हैं। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र,तमिलनाडु, तेलंगाना, आदि जगहों पर हुए किसान आंदोलन इस बात का सबूत हैं कि देश के किसानों में गुस्सा है जो बढ़ रहा है और सरकार की उपेक्षा से उपजा है।भारत का किसान चौतरफा मार झेलता है।कभी बुआई को अच्छे बीज नहीं मिल पाते, तो कभी मौसम की मार से खड़ी फसलें बर्बाद हो जाती हैं,बाढ़ और सूखा तो जैसे तय कर चुके हैं कि किसान को चैन से जीने नहीं देंगे।और इस पर सरकार की अनदेखी जले पर नमक छिड़कने का काम कर देती है।अगर किसी एक मोर्चे को संभाल भी ले तो बाकी ओर से होते आक्रमण उसे चैन से नहीं बैठने देते।केवल किसान ही जानता है कि एक फसल उगाने में कितना खून -पसीना लगता है और अगर वही किसान उस फसल को बर्बाद करने को मजबूर है ताकि सरकार और लोगों का ध्यान अपनी समस्याओं की ओर आकर्षित कर सके, इस उम्मीद में कि उन समस्याओं का कोई समाधान निकल सके तो हमे समझ लेना चाहिए कि हमारे देश में कृषि की क्या स्थिति है।
इतना ही नहीं देश का किसान कर्ज के बोझ तले भी दबा है,जो न चुका सकने की स्थिति में भी वह खुदखुशी जैसा कदम उठा लेता है। देश मे कृषि पर पर्याप्त व्यय की आवश्यकता है।
हालांकि आज़ादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं में, तथा इनके जैसी कई योजनाओं के तहत कृषि पर ध्यान केंद्रित करने का भरसक प्रयास किया गया जिसका असर भी कुछ वख्त तक दिखा।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और इसके जैसी अन्य योजनाएं भी कृषि सुधार की ओर एक अहम प्रयास हैं।
पर बेवख्त मरते किसानों को रोकने के लिए ये काफी नहीं।सरकार को समस्या की जड़ पर चोट करने की ज़रूरत है।देश मे गिने चुने 'एग्रीकल्चरल इंस्टिट्यूट्स ' हैं और इनमें भी पर्याप्त और काबिल अध्यापक नहीं, शोध के पर्याप्त साधन नहीं,लोगों की इस ओर कोई रुचि भी नहीं दिखती।
भारत मे कृषि शिक्षा की घोर आवश्यकता है,और इससे भी अधिक आवश्यकता है इसके महत्व को समझने की।कृषि को एक पेट पालने का तरीका न समझ कर एक उद्योग समझना होगा और उसकी प्रगति की ओर वाजिब कदम उठाने होंगे।
सबसे पहले तो कृषि के आधुनिकीकरण पर ध्यान देना होगा,जिस पर बात तो होती है पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते।फिर किसानों को इसी विधा में शिक्षित करना होगा।जमीन की उरवत्ता ,सही बीज, सिंचाई, कटाई- छटाई, फसल का सही स्टोरेज,आदि चीजों के बारे में किसानों को सही जानकारी होनी चाहिए।
किसानों को अपनी फसल का सही मूल्य पता होना चाहिए।खाद और कीटनाशकों का सही और समय पर इस्तेमाल आना चाहिए।किस समय पर किस जगह पर कौन सी फसल लाभदायक होगी ये समझना भी ज़रूरी है।देश मे पर्याप्त बीज बैंकों की आवश्यकता है।कृषि योग्य ज़मीन के विस्तार की आवश्यकता है।आज के बढ़ते 'कॉन्क्रेट जंगल ' खेती योग्य जमीन को नष्ट करते जा रहे है।जो ज़मीन बंजर हो वही कंस्ट्रक्शन के लिए दी जाए।उपजाऊ भू भाग पर इमारतें खड़ी कर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
मौसम कभी भी निश्चित नहीं हो सकता,यदि मानसून धोखा दे जाए तो सिंचाई के पर्याप्त माध्यम तैयार करने होंगे।साल दर साल कृषि पर जनसंख्या का बोझ बढ़ता जा रहा है,इसको समझने और किसानों को समझाने की ज़रूरत है।किसानों को अपनी फसल के वाजिभ् दाम नहीं मिल पाते,इसके कारण भी किसान की दशा बिगड़ती है।किसान इस देश का अन्न दाता है,और यदि अन्न दाता ही भूख से मरेगा तो एक दिन आएगा जब सारा देश भूखा सोयेगा।
ये ऐसा वख्त है जब सरकारों को किसान की अवस्था पर विशेष ध्यान देना चाहिए।एक कहावत है भूखे पेट भजन भी नही होता और यह देश कितनी विषम परिस्थितियों से घिरा हुआ है।खाली पेट इनका समाधान नहीं निकलेगा।
यदि तकनीकीकरण ,उद्योगीकरण, के इस समय मे जब भारत चाँद तक पहुंच गया है देश का किसान भूख से मरता है तो ये बहुत ही शर्मिंदगी की बात है सिर्फ सरकारों के लिए नहीं ,देश के हर नागरिक के लिए।
किसान सूखी रोटी खाकर खेत जोतता है, और हम थाली में रखे सादे दाल- चावल और रोटी -सब्जी को देख कर बहत्तर तरीके के मुँह बनाते है।
हालांकि पश्चिमी देशों से तुलना सही नहीं,पर हमें ये तुलना करनी होगी ताकि हम नई-नई तकनीकें सीख सकें और उनका उपयोग कर भारत के कृषि की अवस्था में सुधार कर सकें।
अहम ये है कि खेती का औद्योगीकरण  कर इसे महज़ एक आय का तरीका न बना कर बल्कि कृषि को एक एक फलता फूलता उद्योग बनाने की आवश्यकता है और किसानों को उनके हक का मुनाफ़ा मिलना चाहिए।क्योंकि भारत का किसान बहुत समय से स्थिर था, अब थोड़ी हलचल दिखना शुरू हुई है।ज़रूरत है कि किसानों के अंदर पल रहे ज्वालामुखी को समय पर संतुष्ट किया जाए वरना विनाश निश्चित है।और कृषि का नाश ,किसानों का नाश देश को प्रगति की ओर नहीं ले जा सकता बल्कि किसानों की ये दयनीय स्थिति देश की प्रगति में एक बहुत बड़ी रुकवाट है ।हमें इसका हल जड़ से जल्द खोजना होगा इससे पहले की बहुत देर हो जाये।
        -प्रिंसी मिश्रा

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