शहादत

ठहरो ज़रा,गौर से देखो,
कि ये हवाओं की सरगोशी क्या गा रही है,
कि तिरंगे में लिपटी वतन की आन जा रही है।

इनको भी पाला था माँ- बाप ने ठाट से,
तरसती रह गई बूढी माँ कि खिला दे एक निवाला अपने हाथ से।

किया था नीद का वादा इन्होंने,
शहादत की रात से,
सजाया था बाप ने बेटे का जनाज़ा काँपते हाथ से।

बाप के कंधे अब झुक चले हैं,
कि जवान बेटे की लाश देख कदम अब रुक चले हैं।

आँखों में ठहरा आँसू पलकों से लड़ रहा है,
कि आज़ाद होने को और उस जाबांज़ के सीने से लगने को अड़ रहा है।

माँ को सुध बुध नहीं ज़माने की,
बेचारी राह देख रही है अभी भी बेटे के आने की।

दरवाज़े पे टक-टकी लगाये खड़ी है,
उसे होश ही नहीं कि उसके ज़िगर के टुकड़े की लाश आँगन में पड़ी है।

उसकी बीवी भी एक कोने में खड़ी है,
आँख में अब आँसू भी नहीं,
कि अपना घरौंदा बिखरते देख रही है।

एक आखिरी सलाम को सारी भीड़ खड़ी है,
कि रोती बिलखती बेटी बाप को जगाने पे अड़ी है।

गौर से देखो कि क्या कहर ढाया है,
कि शहीद की कब्र पे दुआ पढ़ने खुदा ज़मी पे उतर आया है।

खुदा ज़मी पे उत्तर आया है....।

      -प्रिंसी मिश्रा

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