खंडहर

किसी जंग में घायल किले की तरह खड़ी थी,
कुछ खाली सी, डगमगाती सी, कुछ टूटी सी पड़ी थी।
कि अपनी आबरू बचाने को बहुत वो लड़ी थी।
शर्मसार थी हर आँख की शर्म,
कि इतना घिनौना था ये जुर्म।
जुर्म?
कुछ ने पूछा कैसे था ये जुर्म?
आप ही उसका था ये कर्म।
एक बाण सी छूट गई ,
बिन बाँध के लबों से हँसी फूट गयी।
सोच में पड़ गई,इनके क्या थे कर्म,
भला इन्हें क्या आपदा लूट गई?
हुआ था घात उसकी रूह पे,
और सोचने समझने की ताकत इनकी छूट गई?
पहला सवाल ये नहीं कि गलती किसकी थी,
जो नज़र के सामने था या उस नज़र की?
सबसे पहले तो गलती थी देखने वाले शहर की,
कुछ न किया देखते रहे सिर्फ,और इस जुर्म को माहौल दिया।
फिर उस मज़लूम को ही सही गलत के तराज़ू में तौल दिया।
क्योंकि आसान था उसपे ऊँगली उठाना,
बिन सोचे ,या शायद सोच कर शब्दों के बाण चलाना।
मुश्किल तो था उसका साथ निभाना,
खुद को आइना दिखाना,
और फिर उस आईने में और भी स्याह होती परछाई को देख,
अपनी रूह को पश्चाताप में जलना।
मुश्किल तो था,
उस मज़लूम के जख्मों पे मरहम लगना।
                 प्रिंसी मिश्रा

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