पिता

आँखों में कुछ बूंदे  बारिश की,
कुछ समझदारी दिल में दबी ख्वाहिश की,
नतीजा थी वक़्त की आज़माइश का,
वजह थी उनकी सादी रिहाइश की।
वो कि जिनके पैर कभी रुके नहीं,
वो कि जिनके हाथ कभी थके नहीं,
जिसके प्यार में न है बात किसी गुंजाइश की।

आँखों में कुछ बूंदे बारिश की।
कि बात है ये उस मीठी साज़िश की,
जिसके तहत हमे कभी पता ही न चला,
कि दिल पे तुम्हारे भी कोई बंदिश नहीं,
ख्वाबों से तुम्हारी भी कोई रंजिश नहीं,
बस तुम ख्वाब वो देखते हो,
जो हमारी नींदों में हों।
और फिर हमसे पहले उठके ,
उन्हें सच करने की ओर निकल जाते हो।
गौर से सोचा ही नहीं,
कि इतना थके हारे क्यों घर आते हो।

एक उम्र होती है कि जिसके बाद,
तुम कुछ छुपा अब नहीं पाओगे।

पास बैठा ,
ज़िन्दगी का हर एक किस्सा सुनाओगे,
और उसे जीने का फलसफा सिखाओगे।
हर बार हमें झकझोर नाकामी की नींद से जगाओगे।
हार का हर बार हमारे साथ मज़ाक उड़ाओगे,
जीत का हमारी जश्न तुम मनाओगे।

हम भी खुद में कितने मशगूल थे,
पता ही न चला ,
तुम तो हम में ही मशरूफ थे।
खुद के लिए कभी वख्त निकाला ही नहीं,
हमेशा सबसे पहले हमें ही खिलाया,
थाली में एक ही निवाला सही।

आज बैठने का वख्त मिला तो,
जी चाहता है तुझे निहारता रह जाऊँ,
कि तेरे कंधो पे सर रख सो जाऊँ,
कि तू जो सर पे हाथ रख दे,
बस इसी लम्हे में सारी उम्र रह जाऊँ।
इसी लम्हे में सारी उम्र रह जाऊँ।।
           -प्रिंसी मिश्रा






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